शारीरिक सामीप्य

 

 मैं तुमसे मिलती हूं या नहीं, इससे सहायता में कोई फर्क नहीं पड़ता । वह हमेशा रहेगी ।

 

*

 

तुम्हें अपने मन से इन दो मिथ्यात्वों को दूर कर देना चाहिये ।

 

       १) तुम्हें मुझसे जो मिलता है उसका दूसरों के पास जो है या नहीं है उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं । तुम्हारे साथ मेरा सम्बन्ध केवल तुम्हारे ऊपर निर्भर हैं; मैं तुम्हें तुम्हारी सच्ची आवश्यकता और योग्यता के अनुसार देती हूं । यहां भी, तुम मेरे साथ अकेले ही थे; अगर दूसरे न भी होते तो भी तुम्हें इससे ज्यादा न मिलता ।

 

    २) यह सोचना बहुत बड़ी मूल है कि प्रगति के लिए शारीरिक सामीप्य एकमात्र अनिवार्य चीज हैं । अगर तुम आन्तरिक सम्बन्ध स्थापित न कर सके तो यह तुम्हारे लिए कुछ भी न करेगा, क्योंकि उसके बिना तुम चाहे दिन-रात मेरे साथ बने रहो, फिर भी तुम सचमुच कभी मेरे पास नहीं होगे । केवल आन्तरिक उद्घाटन और सम्पर्क के द्वारा ही तुम मेरी उपस्थिति का अनुभव कर सकते हो ।

 

*

 


माताजी के निबृत१ हो जाने से हमारे लिए एक बहुत बडी समस्या पैदा हो गयी !माताजी और बहुत- से आश्रमवासियों के बीच पहले से जो भौतिक धी क्या वह अब. ? और क्या उनकी सतत निगरानी के बिना आश्रम के काम- धाम चल सकते 'है ? क्या उनके इस तरह ले के समय आश्रमवासियों के ' को नुकसान न 'क्या वे की तरह अब भी हमारे देखाभाला  करेंगी ?

 

 तुम्हें यह न भूलना चाहिये कि हर एक को जीवन में वही मिलता हैं जो उसके अपने अस्तित्व की अभिव्यक्ति हो । ' कृपा ' और आशावाद हमेशा तुम्हारे साध हैं । जो मेरी शक्ति पर निर्भर हैं, सदा की तरह उनकी देखभाल मैंने एक दिन के लिए भी नहीं छोडी ।

 

१२ मई, १९६२

 

*

 

 काम करो-मेरी प्रेरणा और मेरा पथप्रदर्शन हमेशा तुम्हारे साथ होंगे; और जब जरूरी होगा मैं तुमसे भौतिक रूप से भी मिलूंगी । लेकिन मैं इस आवश्यकता को अधिकाधिक कम करने के लिए काम कर रही हूं । क्योंकि कार्य की पूर्णता के लिए आन्तरिक पथप्रदर्शन को पाने के योग्य होना अनिवार्य है ।

 

२१ दिसम्बर, ११६४

 

*

 

 अब जब तुम यहां हो तो बस यही करो कि अपने भूतकाल को भूल जाओ और अपने यहां के काम पर एकतारा होओ । यह सच हैं कि अभी के लिए मैं तुमसे नियमित रूप से नहीं मिल सकतीं, लेकिन तुम्हें आन्तरिक

 

      १२० मार्च, १९६२ सें माताजी ने अपने कमरे से नीचे आना बन्द कर दिया था और उनसे मिलने-जुलने की पहले जैसी छूट न रहीं थी; कुछ समय बाद उन्होंने लोगों से मिलना शुरू किया किन्तु समयादेश देकर ।
 

८१


सम्पर्क प्राप्त करना सीखना चाहिये (मेरे निवृत्त होने के मुख्य कारणों में से एक यह है) और तब तुम जानोगे कि मैं हमेशा तुम्हें राह दिखाने और तुम्हारी मदद करने के लिए तुम्हारे साथ हूं और तुम अपनी साधना करने के लिए यहां से अच्छी परिस्थितियां कहीं नहीं पा सकते ।

 

*

 

 यह कहना ज्यादा सच होगा कि अमुक विचार, अमुक भावनाएं और अमुक कार्य लोगों को मुझसे दूर ले जाते हैं या समस्त भौतिक सामीप्य के होते हुए भी मेरे और व्यक्ति के बीच अलगाव पैदा कर देते हैं ।

 

१ मई, १९६८

 

*

 

     हमें लगता हे कि हम आपकी उपस्थिति ले दूर हो नये ने; मेरी मां यह अलगाव केवल एक भ्रांति है न ?

 

 कोई वास्तविक अलगाव है ही नहीं, लेकिन अगर चेतना कोई गलत वृत्ति अपनाये, तो वह अपने- आपको ऐसी स्थिति में रख देती है जिसमें अलगाव का संवेदन या भाव होता है ।

 

*

 

      क्या आपके साध भौतिक सम्पर्क अनिवार्य ?

 

 नहीं, यह भौतिक सम्पर्क अनिवार्य नहीं है । यह निश्चित है कि जिनका मनोभाव ठीक होता है, उनके शरीर को भौतिक सम्पर्क रूपान्तर की गति का अनुसरण करने में सहायता देता हैं, लेकिन शरीर कदाचित् ही ऐसी अवस्था में होता है कि उससे लाभ उठा सके । साधारणत: जन्मदिनों पर वह ज्यादा ग्रहणशील होता है ।

 

सितम्बर, १९७१

 

*

अब मैं सक्रिय जीवन में नहीं हूं; अगर तुम खुले हुए होओ तो सहायता आयेगी ही आयेगी ।

 

१४ दिसम्बर, १९७२

 

८२